Monday, June 2, 2008

ब्रज के सवैया-1

सुमिरू गणदेव गजानन कूं, उर मैं धरूं ध्यान सरस्वती माता।
नित निर्मल बुद्धि प्रदान करें, लिखूं गीत हरी के सदा सुखदात॥
मन मैं है उमंग तरंग बड़ी, पर ग्यान नहीं इससे चकराता।
यदि कोर क्रिपा गुरुदेव करें तो, दुर्लभ भी सुलभ बन जात॥


शब्दों के पुश्पों को ठौर करूं, और भाव के धागों में गूंथूं पिरोऊ।
फिर भक्ती का लेप लगा कर के, इक हार बना निज हाथ संजोऊ॥
मनमोहन के पद पन्कजों में, धरूं शीश सदा फिर रोऊं सो रोऊ।
अश्रू बिंदुओं से पग धोऊ तथा फिर, माला चढ़ा प्रभू प्रेम में खोऊं॥


करलूं तब सार्थक जीवन को, जो व्यतीत हुआ सो अरीति गंवाया।
प्रभू प्रेम में चित्त लगाया नहीं, फंस माया में नित्य रहा भरमाय॥
आसक्त रहा धन दौलत में, मद मान में बैठ सदा गरवाय।
कर दैं यदि दीनदयाल कृपा, तर संजय जाय माया का सताय॥

प्रभू दीनदयाल कहाते हो तो, फिर क्यों न दया की मैं आश करूं।
अति दीन मलीन दुखी नित हूं, बिना कोर कृपा कैसे मैं सुधरूं॥
कृपा दृष्टि की वृष्टि भी कृष्ण करो, पद पंकज की रज शीश धरूं।
अब नाथ तुम्हारे ही हाथ में है, मेरी डोर कहो मैं बनू बिगरूं ॥

प्रिय चन्दा लगै है चकोर को ज्यों, लगै सावन मास सुहानौं पपैया।
संग मित्रौं के बैठे रहो जितने, पर बात निराली मिलैं जब भैया॥
प्रेम करे पत्नी कितनौंउ पर, पाइ सकै वो न प्यारी सी मैया।
देव मुझे सब प्यारे लगैं, उर मध्य बसे पर कृष्ण कन्हैंया॥