Monday, June 16, 2008

ब्रज के सवैया-17

इस बंजर भूमि हृदयस्थल में, निज प्रेम की अमृत धार बहा दो।
अति सुखे मरुस्थल जीवन में, तरु भक्ती की एक कतार लगा दो॥
सम पात झड़ा निज दास खड़ा, फल फूल नवीन बहार लगा दो।
रसलीन बिहीन बनी रसना, रस नाम की एक फुहार लगा दो॥

ब्रज भूषण दूषण दूर करो, निज भक्ती का भाव भरो भयहारी।
मधुसूदन सूदन शीघ्र करो, रिपु मोइ सताइ रहे बड़भारी॥
देवेश महेश जो शेष कलेश, निपेश करो इनको करतारी।
सब छोड़ अनर्थ समर्थ करो, तजूँ तृष्णा तरूँ तव तो त्रिपुरारी॥

जब लौं नहीं खोलो कपाट प्रभो, तब लौं हम द्वार से जाने न वाले।
उस मोहनी मुरति देखन को, कब से तरसे हैं ये आँखों के प्याले॥
बिना झोली भरे अब टलेंगे नहीं, कितना भी कोई हमको समझाले।
अब प्राण पखेरू उड़ेगे यहीं, निज हाथों से आके तू आप उठाले॥

बिषयों में ही ध्यान हमेशा रहे, फिर इन्द्रियों पै प्रतिबन्ध कहाँ।
तन की इस पुष्प सुवाटिका में, हरि प्रेम बिना वो सुगन्ध कहाँ॥
परिवार के मोह के बन्धन में, उठते उर भाव स्वच्छ्न्द कहाँ।
गुणगान प्रभू कोई खेल नहीं, तुम संजय मुरख मंद कहाँ॥

तेरे नाम में प्यार अपार भरा, फिर क्यों किसी मंत्र का जाप करें।
सदा ध्यान हमारा किया तुमने, हम व्यर्थ में यौं ही प्रलाप करें॥
तुम संग सदैव हमारे रहे, हम जैसी भी क्रिया कलाप करें।
देवेश सुनो अब अंत विनय, तुम और मैं शीघ्र मिलाप करें॥

ब्रज के सवैया-16


कुछ शीत प्रकोप जो शांत हुआ, नभ में रविदेव लगे मुसिकाने।
सुखदायक वायु लगी बहने, भर ओज लगीं कलियाँ अँगड़ाने॥
स्वर सुन्दर कोकिला कूकि उठे, बन बागों में वृक्ष लगे बौराने।
चँहु ओर सुसज्जित है धरती, ॠतुराज बसंत लगे ब्रज आने॥

मति मंद हूँ मूड़ गँवार बड़ा, करुणेश्वर ज्ञान का दीप जलाओ।
सम इन्द्र प्रकोप करैं इन्द्रियाँ, ब्रजराज जरा गिरिराज उठाओ॥
कामादिक शत्रु घिराव करैं, कर क्रोध सुदर्शन चक्र चलाओ।
भवसिन्धु में बिन्दु सा व्याकुल हूँ, कृपासिन्धु कृपा कर हाथ बढ़ाओ॥

मोह भँवर भव सागर में, फँसि के प्रभु भान नहीं कर पाया।
करि कोर कृपा घनश्याम दिया, तन मानव मान नहीं कर पाया॥
निशि वासर नित्य रहा भटका, मद मोह से ध्यान नहीं हर पाया।
फँसि राह ही धूल में ध्वस्त रहा, हरि हीरा क ज्ञान नहीं कर पाया॥

माखन चोर अरे चितचोर करो कुछ चोरी का काम भी मेरा।
निज चित्त में चार निवास करें, अति चंचल चोरों ने डाला है डेरा॥
काम और क्रोध तथा मद मोह हैं, नाम बड़े इनके घनघोरा।
चोरी से चोरी करो इनकी, फिर चित्त करो चितचोर बसेरा॥

भवनों में भी भव्य वो शान्ती नहीं, जो कि पुष्प लताओं ललाम में है।
वह मान भला परदेश कहाँ, निज गाँव में जो निज धाम में है॥
अहोभाग्य बड़े उस जीव के हैं, रहता ब्रज के किसी ग्राम में है।
इतना सुख और कहीं भी नहीं, जितना भगवान के नाम में है॥

ब्रज के सवैया-15

दृढ़ लक्ष्य बना गिरिराज खड़ा, ब्रज रक्षण में रहता मतवाला।
फल फूलों से वृक्ष सुशोभित हैं, सम सैन्य खड़े बहु वृक्ष विशाला॥
निर्भीक बना ब्रज का प्रहरी, दृढ़ पैर जमा अतुलित बलशाला।
इससे टकराकर खण्डित हों, बड़े वीर हों या फिर काल कराला॥

जहाँ गेंदा गुलाब के फूल खिले, जल में दल नीरज भा रहे हैं।
बन बाग तड़ाग सुरम्य सजे, खग वृन्द सभी कुछ गा रहे हैं॥
फल फूल सुशोभित वृक्ष सभी, मन में नहीं फूले समा रहे हैं।
कर बद्ध लखें सब स्वागत में, घनश्याम अभी जेसै आ रहे हैं॥

हँसि हौंस हिलोर भरै यमुना, उनमत्त हुई हिय मैं हरसाती।
जल में कलनाद के क्रंदन से, सुकुमारी सुरम्य सा साज सजाती॥
जलधार में प्रेम समेंटे अपार, लखै प्रभु प्रेम में आँसू बहाती।
बहै अविराम बनी निष्काम, हमें कृत कर्म का पाठ पढ़ाती॥

शीतल मन्द समीर बहै, रहें कूकत कोकिला बागन में।
सुचि स्वच्छ सरोवर नीर भरे, खिलें पुष्प सुगन्धित राहन में॥
रिमझिम रिमझिम बदरा बरसै, ॠतुराज हरै उर सावन में।
मनोहारी मनोहर मंगलमय, छवि मोद भरे वृन्दावन में॥

तृण गुल्मों पै चन्द्र छटा छिटकी, नभ में रजनीश विराज रहे हैं।
तरु पल्लव पुष्प लता कलियाँ, कर भाग्य बुलंदी पै नाँज रहे हैं॥
माधुर्य मगन मधुवन मन में, सुरलोक भी सोचि के लाज रहे हैं।
भर नैन कोई लख ले उन को, कर नूतन रास भी आज रहे हैं॥