Thursday, July 17, 2008

ब्रज के सवैया-28

जिसने कभी प्रेम किया ही नहीं, वह प्रेम की भाषा को जानेगा क्या।
दया भाव कभी उर आया नहीं, वह दीन-दयाल को मानेगा क्या॥
जिसे स्वाद नहीं रसपान का हो, निज को रस-प्रेम में सानेगा क्या।
रसनाम लिखा रसना पै नहीं, रस-प्रेम को वो पहचानेगा क्या॥

चकरी जब काल की घूमती है, तब माधव नील सुहाने लगैं।
उड़ पंछी जो साँझ भये घर में, हर हाल में वापस आने लगैं॥
कुछ मित्र पुरानों की स्मृति भी, उर अंतर में लहराने लगैं।
बस यों समझो कुछ काल बिता, हम मित्र सियाटल आने लगैं॥

अपने वह हैं मिलकर जिनसे, मन में लगता अपनापन है।
यदि भाव बिचार नहीं मिलते, फिर तो बस जीवन यापन है॥
कल क्रन्द करैं सुन कर्ण नहीं, हरी कीर्तन तो बहरापन है।
सतसंग मिले करने को सदा, प्रभु प्रेम कृपा का ये मापन है॥

हुए वर्ष व्यतीत अतीत में तीन, तो दीन-दयाल का आया बुलावा।
हम भूल गये नहीं भूले हैं वो, यह सोच भरें जल नैन कुलावा॥
रख दूर हमें भी है नेह किया, किया प्रेम निरंतर खूब बढ़ावा।
अब जो भी हुआ बस यों समझो, यह पाठ प्रभू का है प्रेम बढ़ावा॥

राधे रानी की जय महरानी की जय, कहने को हुआ मन आज भला।
यह अष्ठमी राधा का पर्व महा, बुध उन्नीस तारीख साज भला॥
अहलादिनी शक्ती हैं मातेश्वरी, यह जान लो संजय राज भला।
भज ले भज ले मन में उनको, जग में इससे नहीं काज भला॥

ब्रज के सवैया-27

मुख सुन्दर श्याम अनूप छटा, अलकावली काली बही जा रही हैं।
तिरछी मुसकान तथा तिरछी, दृग कोर न आज सही जा रही हैं॥
लखि साँवरी सूरत साँवरे की, ब्रजनारि ठगी सी रही जा रही हैं।
अलबेली छटा घनश्याम सखा, नहीं संजय आज सही जा रही हैं॥

जब से नहीं याद किया तुमको, तब से कुछ चित्त अशाँत सा है।
श्रम खूब किया सब व्यर्थ गया, कल की अभिलाषा में भ्राँत सा है॥
उर भीतर हर्ष तरंग नहीं, डर सान्ध्य प्रहर के प्रशाँत सा है।
कुछ यों महसूस हुआ हमको, किसी भूकंप के उपरांत सा है॥

नभ में घनश्याम छटा दिखती, अथवा घनश्याम की कान्ति है क्या।
ॠतुराज के पुष्पों की चादर है, अथवा पट पीत की भ्रांति है क्या॥
उठती है हिलोर जलाधिप में, उर में वह दर्श अशान्ति है क्या।
सुखदायक सौम्य समीर है या, ब्रजराज समीप्य की शान्ति है क्या॥

वह भक्ती ही क्या करने से जिसे, भगवान हुए ना प्रसन्न अहो।
दृग से यदि धार नहीं बहती, वह पूजा नहीं चाहे जो भी कहो॥
वह स्वाँग ही है हरी कीर्तन का, यदि चंचल चित्त कहीं और हो।
परिपूर्ण समर्पण है जबही, घनश्याम के पामों को पूर्ण गहो॥

चहुँ ओर हो भक्तों की टोली जहाँ, फिर क्यों इतने घबड़ाते हो तुम।
किस भाँति व्यवस्था बनायी सभी, फिर क्यों न हृदय सुख पाते हो तुम॥
यह रैस्टन क्षेत्र बड़ा रमणीय, तो क्यों व्यथा छोड़ के जाते हो तुम।
घनश्याम हैं भक्तों के साथ सदा, यह जान के भी भरमाते हो तुम॥

ब्रज के सवैया-26

तुझ पै घनश्याम चढ़ाऊँ में क्या, तन है मन है धन है सब तेरा।
जग में नहीं दीखती वस्तु कोई, जिसपै यदि हो अधिकार जो मेरा॥
फिर कैसे रिझाऊँ मनाऊँ तुम्हें, करो कोर कृपा करते क्यों हो घेरा।
निज प्रीति की ज्योति जगा उर में, घनश्याम करो मम चित्त बसेरा॥

करुणेश कृपा कुछ यों कर दो, जग छोड़ू रहूँ मदमस्त बना।
गुणगान में ध्यान निरंतर हो, रहूँ प्रेम पियूश पुनीत सना॥
निज प्राण प्रसून चढ़ा कर के, चरणों पै तेरे तुझको लूँ मना।
नहीं दीन तजो दीनानाथ प्रभो, यह दास तेरा है सदा अपना॥

नहीं साधन सिद्धि किये अब लौं, यह जीवन व्यर्थ व्यतीत हुआ।
पद पंकज प्रेम बिहीन रहा, सुचि स्वर्णिम वक्त अतीत हुआ॥
फँस के जग जाल में ध्वस्त हुआ, फिर भी कोई सच्चा न मीत हुआ।
रस बिन्दु का नाम निशान नहीं, सर्वस्व मेरे विपरीत हुआ॥

अब माधव सत्य बताओ हमें, पद पंकज दास बनाते हो क्या।
दृग कोर चला फिर यों तिरछी, हमको तुम व्यर्थ सताते हो क्या॥
कुछ प्रेम का पाठ पढ़ाते हो, या फिर व्यर्थ हमें भरमाते हो क्या।
सच बात कहो हमसे उर की, उर-बासी हमारे कहाते हो क्या॥

तुम सिन्धु हो बिन्दु बने हम हैं, हमको अपने में ही श्याम मिलाओ।
बहु काल व्यतीत हुआ जग में, अब और नहीं यह खेल खिलाओ॥
इस प्यासे पपैया से जीवन में, निज नाम की स्वाँती की बूँद पिलाओ।
अति दुर्बल दीन मृतक सम हूँ, करुणानिधि आकर हाय जिलाओ॥

ब्रज के सवैया-25

अरे कृष्ण कहाँ चले दूर गये, यह माया तेरी मुझको गहती है।
कुछ हाल में बीता यों वक्त प्रभो, वह प्रेम की धार नहीं बहती है॥
चरनाम्बुज में नहीं चित्त लगे, मृग तृष्णा फँसी जग में रहती है।
प्रभु प्रेम का अमृत पीती नहीं, विष पीकर कष्ट विषय सहती है॥

अब माधव ध्यान करो भी जरा, दृग बिन्दु अपार बहे जा रहे हैं।
छलिया छल छोड़ के दर्शन दो, हम कष्ट विषय का सहे जा रहे हैं॥
देवेश दया कर दृष्टि करो, उर अंतर भाव कहे जा रहे हैं।
मैं चकोर हूँ हो तुम चंद मेरे, बिन दर्श न नैन रहे जा रहे हैं॥

वह तान बजाकर बाँसुरी की, कह दो तुम नाथ निरंतर मेरे।
नहीं छोड़ोगे साथ भविष्य में भी, बने चाँहे मेरे अपराध घनेरे॥
अति शीघ्र बुलाओगे पास मुझे, करवाओगे और नहीं जग फेरे।
कह दो इतना मुसिकाकर के, सुनो अर्ज़ मेरी परूँ पामन तेरे॥

वह जीवन नाव न डोले भँवर, जिसके पतवार बने बनबारी।
नहीं वृष्टि विषय की भी पेश चले, गिरिराज लिये हों खड़े गिरिधरी॥
प्रेमान्जन नैंन लगा यदि हो, मिटती जग-जीव की बाधायें सारी।
कोई लूटेगा क्या उससे अर्पण, सर्वस्व किया जिसने त्रिपुरारी॥

पड़ते जब अंग शिथिल तन हों, करवादे कोई तेरे नाम की फाँकी।
लगे क्षीण हुई दृग ज्योति यदि, बस तेरी हो श्याम निरंतर झाँकी॥
इस दास के पास बने रहना, नहीं बात सही तुमने यदि ना की।
निकलें जब प्राण कलेवर से, उर में बस हो वह मूरति बाँकी॥

ब्रज के सवैया-24

यह खेल जरूरी है खेलना क्या, कभी आते हो और कभी चले जाते।
बहलाते हो आकर के मन को, फिर जाकर आखिर क्यों हो सताते॥
यह भाव वियोग भले हो बड़ा, हमको इसके कुछ स्वाद न भाते।
ढिंग आपने श्याम बुला के रखो, रहो थोड़ा सा माखन यों ही चटाते॥

अभी ध्यान तुम्हारे में बैठे ही थे, मन चंचलता दिखलाने लगा।
फिर रस्सा कसी का सा खेल चला, वह खेल पड़ा हमको मँहगा॥
मन जीत गया नहीं पेश चली, यह देने लगा हमको ही दगा।
कुछ संयम शक्ती प्रदान करो, फिर खींचूं इसे तव हो ये सगा॥

जब जानते दास तुम्हारा ही हूँ, तब प्रेम परीक्षा यों लेते हो क्यों।
मन मंतर माया चला कर के, अनुत्तीर्ण करा फिर देते हो क्यों॥
मझदार में नैया फंसा कर के, पतवार बने फिर खेते हो क्यों।
असमर्थ हूँ प्रेम परीक्षा में मैं, यह जानके भी फिर लेते हो क्यों॥

घनश्याम जरा हँस के कह दो, मैं हूँ दास तेरा तुम मालिक मेरे।
यह जीवन धन्य तभी समझूँ, व्यथा व्यर्थ व्यतीत हुए बहुतेरे॥
प्रभु सेवा के भाव विहीन हुआ, दुख-आलय के करता रहा फेरे।
करुणेश दया कर दृष्टि करो, करूँ सेवा सदैव रहूँ ढिंग तेरे॥

मधुरामृत लाके पिला दे कोई, घनश्याम की राह दिखा दे कोई।
निशि वासर नाम जपूँ उसका, रसना पर नाम लिखा दे कोई॥
उस मोहनी मुरत का उर में, बस चित्र बनाना सिखा दे कोई।
मरते हुए को यों जिला दे कोई, मिलवा वह श्याम सखा दे कोई॥

ब्रज के सवैया-23


मुरली धर ध्यान धरो इसका, यह दास उदास पुकार रहा।
कर कोर कृपा वह दृष्टि करो, भर प्रेम बहा दृग धार रहा॥
मन मोहनी मूरति सुन्दर पै, निज प्राण प्रसून उबार रहा।
अब दर्शन देकर धन्य करो, बस नाम तुम्हारा उचार रहा॥

सर्वस्व चुराकर ले गये हो, नहीं बाकी बचा कुछ मेरा अहो।
इतनी तो सजा इस चोरी की हो, मेरे नैनों की जेल में बंद रहो॥
निशि बासर नाम लगा पहरा, नहीं भाग सको यदि भाग चहो।
इस चोरी बड़ी की ये थोड़ी सजा, यदि ज्यादा लगे तब तो तुम कहो॥

देवेश दयाकर दृष्टि करो, तन तामस ताप तपा जा रहा है।
मन बुद्धि भयंकर दुसित है, नहीं नाम भी तेरा जपा जा रहा है॥
कुछ तो उपयोग करूँ इसका, यह जीवन व्यर्थ खपा जा रहा है।
अब देर करो करुणेश नहीं, बिना अमृत धार कृपा जा रहा है॥

दुख दर्द भरे दुख-आलय में, सुख की अभिलाषा है व्यर्थ यहाँ।
क्षण भंगुर जीवन की बगिया, रमने का नहीं कोई अर्थ यहाँ॥
भगवान की भक्ति करी जो नहीं, समझो किया खूब अनर्थ यहाँ।
परिवार न मित्र न कोई सगा, प्रभु सच्चे हैं सथी समर्थ यहाँ॥

मँढ़राता रहूँ मकरंद को मैं, प्रभु प्रेम पराग हुए लपटाये।
परवाह करूँ नहीं जीवन की, रवि अस्त हुए दल कैद कराये॥
मदमस्त रहूँ रस पीकर के, गुणगान करूँ नित रहूँ गुनगुनाये।
पद पंकज श्याम पै बारा करूँ, तन मानस जीवन का फल पाये॥

Tuesday, July 15, 2008

ब्रज के सवैया-22

ब्रज के सवैया-22

खग वृन्द न सीजते अन्न कभी, चलता है भला इनका भी गुजारा।
फिर भी हम सीखते सीख नहीं, धन जोड़ने में रहते भरमारा॥
मुख मोड़ के दूर खड़े न सुनैं, सब जीवों का आखिर वोही सहारा।
अब संजय एक ही राह बची, घनश्याम में ध्यान लगा दो ये सारा॥

पुरवैया चली मदमाती हुई, कमनीय कलिन्दी का कूल किनारा।
वन वृक्ष सुगन्धित पुष्प खिले, मनमोहक मोदक सौम्य नजारा॥
बड़ता हुआ ग्वालों का झुन्ड चला, सबने कोई खेल विषेश बिचारा।
मन मान मनोज मरोड़े हुए, चला खेलन आज है नन्द दुलारा॥

नव नूतन भाव कहाँ उपजें, हिय में हृदयेश्वर भक्ति नहीं।
प्रभु प्रेम की धारा बहेगी कहाँ, जल जाल से पूर्ण विरक्ति नहीं॥
मन चंचल द्वन्द अशाँति भरी, पद पंकज श्याम आसक्ति नहीं।
बिना प्रेम के अश्रु बहाए कभी, निज-आत्म की होती है त्रप्ति नहीं॥

बहु भाँति प्रयास किये हमने, चित में वह चित्रित चित्र न होता।
अति चंचलता मन में है भरी, घनश्याम के ध्यान में है नहीं खोता॥
भव सागर में उलझा हूँ हुआ, नहीं चैन मिले नित खाता हूँ गोता।
बिना कोर कृपा परमेश्वर के, भला कैसे रहूँ प्रभू प्रेम में रोता॥

अब छोड़ भी दो छलिया छल को, वह रूप अनूप दिखाओ जरा।
दुख दर्द भरे दृग दीन कहें, कर दान दया बस आओ जरा॥
पद पंकज भक्ति प्रदान करो, निज प्रेम का पाठ पढ़ाओ जरा।
नट नागर ध्यान में आकर के, अब प्राण पखेरू उड़ाओ जरा॥

ब्रज के सवैया-21

जिसने कभी प्रेम किया ही नहीं, वह प्रेम की भाषा को जानेगा क्या।
प्रभू प्रेम पियूस के सागर हैं, प्रिय प्राणी सभी यह मानेगा क्या॥
प्रीति की रीति में अश्रु बहा, दृगधार सनेह में सानेगा क्या।
उर अंतर झाँक न देखा कभी, परमेश्वर को पहचानेगा क्या॥

करुणानिधि हाय पुकार रहे, करुणा करि के हमरी सुधि लीजै।
तुम प्रेम सरोवर हो जग के, पद पंकज प्रेम की भिच्छा दो दीजै॥
मम कामुक चित्त कठोर बड़ा, किस भाँति ये प्रेम तुम्हारे पसीजै।
निज प्रेम की गंगा बहा दो नहा, जिसमें यह पाम पराग पै रीझै॥

डर किंचित मृत्यु नहीं हमको, अफ़सोस की भी कोई बात नहीं।
लखी ऐसी न कोई जगह जग में, दिन ही दिन हों जहाँ रात नहीं॥
जब आये अकेले थे जाँयेगे भी, नहीं दुख हमें कोई साथ नहीं।
पर श्याम न नैंन सगारी हुए, यह सोच हमें बरदास्त नहीं॥

अनुराग के राग में लीन हुए, गठबंधन पूर्ण हुए वर्ष बाराह।
इस माया महा ने यों हाथ धरा, प्रभू ध्यान बिना यह वक्त गुजारा॥
मद मोह का चाकर नित्य बना, नहीं प्रेम किया परमेश्वर प्यारा।
अब संजय एक ही राह बची, घनश्याम में ध्यान लगा दो ये सारा॥

इस जीविका के प्रतिपालन में, हुआ जीवन व्यर्थ अनर्थ बिचारा।
यह कामुक चित्त विचित्र बड़ा, भटकाता फिरे हमको ही हमारा॥
कर में कलि काल कटार लिये, दिखता नहीं कोई बचाव का चारा।
अब संजय एक ही राह बची, घनश्याम में ध्यान लगा दो ये सारा॥