Monday, June 9, 2008

ब्रज के सवैया-8

वह दिव्य खजाना लिये फिरते, फिर भी कोई लेने को आता नहीं।
निज भक्तों की नित्य भलाई सिवा, उनको कुछ और है भाता नहीं॥
पिता पुत्र वियोग में कैसे रहे, इसी भाँति उन्हैं रहा जाता नहीं।
अनजान बना यह जान के भी, मूढ़ संजय तू क्यों शरमाता नहीं॥

रसना बस है बस ना सम ही, हरी नाम जिसे कभी आता न हो।
वह नेत्र ही क्या हरदम जिनको, हरी दर्श बिना रहा जात न हो॥
वह चित्त भला किस काम का है, यदि श्याम में ध्यान लगाता न हो।
वह कीर्तन क्या भगतों के लिये, तन को मन को जो हिलाता न हो॥

प्रभू आखिर क्या हम जीवों में है, जिनके बिना आपको चैन नहीं।
करते-करते बस कोर कृपा, थकते बस आपके नैन नहीं॥
करुणा कितनी है भरी तुममें, कहते बनते मुझे बैन नहीं।
अति चिन्तित हो हम पापियों को, सुख से करते क्यों हो चैन नहीं॥

एक बात कहूँ सुनो आज सखा, मन में जिसे सोचि खुशी अति छाई।
गुरुवार दिवस तिथि एकदशी, परदेश में आज मिले सब भाई॥
सतसंग करैं सब बैठि के संग, हरी गुणगान रहे हम गाई।
यह है सब माधव की ही कृपा, करते-करते जो रहे न अघाई॥

धुनि बाँसुरी की मोइ प्यारी लगे, उसे मन्थर मंद बजाते रहो।
अति दुर्लभ जो देवताओं को है, वह दर्शन दिव्य कराते रहो॥
अग्यान हूँ बुद्धि कहाँ मुझ में, सदमारग नित्य दिखाते रहो।
भटकूँ यदि राह में तेरी कभी, ढ़िंग आपने श्याम बुलाते रहो॥

ब्रज के सवैया-7

पीछे ही पीछे वो भाजत हैं, एक कारी सी काँमरि लिए अपनाई।
धेनु चरावत डोलत हैं, ब्रज में सँग ग्वालों के टोली बनाई॥
अति सुन्दर लीला किये फिरते, धेनु सेवा में पुन्य रहे हैं बताई।
गोलोक कूँ छोड़ि के गोकुल में गोविंद रहे देखो गाय चराई॥

माता यशोदा पै आयी शिकायत कि, लाला ने तेरे ने माँटी है खाई।
धाईं सुन मैया कन्हैंयाँ के पास, कहा तेरे मुँह में दै मोकूँ बताई॥
भोले से लाला ने खोल दियौ मुँह तो, तीनहुँ लोक दये हैं दिखाई।
ब्रह्म परम परमेश्वर है यह, जानि यशोदा रहीं चकराई॥

हाय महा अपराध कियौ, बिना जाने ही ब्रह्म की कीन्ही पिटाई।
पाप बड़ौ मैंने भारी कियौ, परै जीवन दीखत मोर खटाई॥
श्याम ने देखी यों मौया दुखी, मन से यह बात दयी है मिटाई।
भूलीं यशोदा ये लीला महा, निज लाल कूँ कंठ रहीं हैं लगाई॥

अति चंचल ज्यों चपला बनि कें, क्यों है घूमत चित्त की चाहन में।
भटक्यौ भटक्यौ सौ तू डोलत है, इन माया की टेड़ी सी राहन में॥
कछू हाथ लगैगौ न तेरे यहाँ, अनदेखी गली और गाँमन में।
लगि जा लगि जा मन मूरख तू, अब तौ घनश्याम के पामन में॥

जब आगे को पैर बढ़ा ही दिया, तव राह के काँटों से क्या डरना।
पथरीली हो गीली हो जैसी भी हो, अब पीछे नहीं हमको मुड़ना॥
भव जाल को छोड़ि के दूर चले, तव माया के फाँसे में क्यों फँसना।
घनश्याम ही एक हैं लक्ष्य बने, अब ध्यान उन्हीं का हमें धरना॥