Monday, June 23, 2008

ब्रज के सवैया-20

जग जाल असत्य है मित्र सुनो, भला आखिर कौन यहाँ अपना।
क्षण भंगुर है यह जीवन भी, जिसमें हम देख रहे सपना॥
दुख दर्द भरे दुख आलय में, अब और नहीं इसमें खपना।
बस एक ही, एक ही सत्य यहाँ, भगवान का नाम सदा जपना॥

हम खाकर बोलें तुम्हारी कसम, हमको बस पास तुम्हारे ही आना।
मिल ली मिलनी थी सजा हमको, अब और नहीं घनश्याम सताना॥
पाम परूँ कर जोर कहूँ, बस माँफ़ करो अबके तुम कान्हा।
करि बेगि बुलाया दया करके नहीं, तो फिर भाव दया न जताना॥

नहीं चाहिये भाव एश्वर्य तुम्हारा, नहीं देखना दिव्य माया प्रदर्शन।
हटालो ये ज्योती नहीं देखना है, कराम्बुज में शंख चक्र और सुदर्शन॥
रहो क्षीर सागर में दैत्यों पै भारी, भला हमको उससे भी क्या है आकर्षन।
खेले श्रीधामा के संग जो रूप, उसी रूप का हमको दे दो न दर्शन॥

धरा तेरे भी भाग्य बुलन्द बड़े, घनश्याम ने पाम धरा तेरे ऊपर।
सुरलोक नहीं, सतलोक नहीं, तुझको ही चुना बस कोर कृपा कर॥
लीला अनौंखी करी ब्रज में, वन धन्य किये पूज्य धेनु चराकर।
एक ही पंथ में कार्य किये बहु, ग्वालों के संग में माखन खाकर॥

धन दौलत दृव्य भरे घर में, पद मान मिला पद्ववी प्रभुता।
नहीं दुख सुखी यह जीवन है, कोई बैरी नहीं सब करैं मित्रता॥
यह व्यर्थ अनर्थ सभी उर में, यदि प्रेम प्रभू का नहीं जगता।
अमान्य हैं शून्य करोड़ों जो हों, यदि अंक अगारी नहीं लगता॥

ब्रज के सवैया-19

हठ आज हमारी भी देखो ब्रजे, जब लौं तुम गेह पै आओगे ना।
हम भोजन पान करेंगे नहीं, जब लौं तुम भोग लगाओगे ना॥
तब लौं यह आँसू भी बन्द नहीं, कह दो तुम और सताओगे ना।
अब देर करौ धनश्याम नहीं, हम को नहीं जीवित पाओगे ना॥

भव सागर में नटनागर मैं, जल मीन की भाँति रहा भरमाऊँ।
चहुँ ओर हैं व्याधा लगीं मुझसे, अब श्याम तुम्हें मैं कहाँ से गिनाऊँ॥
इस माया का जाल बिचित्र बड़ा, इसमें फ़ँसि के फिर फिर पछिताऊँ।
मद मोह के गोतों में डूब रहा, कुछ श्वाँस थमे तब हाल सुनाऊँ॥

मद मान और मोह भरी ममता, इस माया महा ने यों मारा है मंतर।
व्यर्थ अनर्थ भरे सब हैं, कलि काम और क्रोध मेरे उर अन्तर॥
ज्ञान नहीं अन्धकार भरा, किस भाँति करूँ यह जन्म उनन्तर।
संजय यदि संजय चाह करो, तो करो प्रभु पामों में प्रेम निरन्तर॥

उस श्याम सलौनी सी मूरत की, अनमोल छटा कोइ आज दिखा दे।
चले जायेंगे पूछते पूछते यों, अरे कोई जरा सा पता तो लिखा दे॥
किस भाँति सम्भालेंगे देख उसे, अपने तन को कोई सीख सिखा दे।
भर अंक में ले लिपटूँ उससे, एक बार कोई बस स्वाद चखा दे॥

ब्रज की रज में वह लोट्यौ रह्यौ, नव नृत्य किये मधु मधुवन में।
उँगरी पै उठाइ के मान कियो, सब तीर्थ दिये धर गोधन में॥
संग श्रीधामा से ग्वालन के, हँसि खेलत खात फिर्यौ बन में॥
हर डाल में पात में आज भी है, वह नित्य बसै वृंदावन में॥

ब्रज के सवैया-18

धन जाने में भी कोई हानि नहीं, यदि दिया गया किसी दान में हो।
नष्ट समय वो कभी भी नहीं, बीतता यदि प्रभू के जो ध्यान में हो॥
उस रोने का हर्ष बही समझे, जो कि लीन हुआ भगवान में हो।
मित्रो जीवन अंत में लाभ बड़ा, चिर निद्रा यदि प्रभु भान में हो॥

खचाखच भरी हो कचहरी तुम्हारी, जहाँ मैं हूँ मुजरिम बने तुम हो अफसर।
झड़ाझड़ लगी हो झड़ी इल्जमामत, हैरान हो देखते तुम हो अक्सर॥
सफ़ाई में हो ना मेरा कोई हमदम, सरेआम इल्जाम लगते हों मुझपर।
तो हाकिम मेरे फ़ैसला यों सुनाना, कि जूती तुम्हारी हो और हो मेरा सर॥

मुखचन्द्र मनोहर सुन्दर को, बन चातक नित्य निहारा करूँ।
छवि छैल छवीली छटा छलिया, उर के उर नित्य उतारा करूँ॥
निशि वासर ध्यान करूँ उसका, कुछ और न मित्र गँवारा करूँ।
घनश्याम निछावर होकर के, निज प्राण प्रसून उवारा करूँ॥

कुछ मीठा सा कानौं में शब्द पड़ा, सब के सब भागे ही जा रहे हैं।
तज के कुछ काम को बीच चले, तन पै कुछ वस्त्र न पा रहे हैं॥
चकराकर कर्ण उठाकर के, गऊ वत्स सभी यौं रम्भा रहे हैं।
अरे बैठि कदंब के वृक्ष तले, देखो बाँसुरी श्याम बजा रहे हैं॥

मुसिकाइ के नैना किये तिरछे, चित लै गयौ, लै गयौ, लै गयौ री।
हँसि बोलि कें दूर गयौ जब से, दुख दै गयौ, दै गयौ, दै गयौ री॥
तेरी याद में सूख गयीं अँखियाँ, सबरौ जल बह गयौ, बह गयौ री।
लौटिके आयौ न आज तलक, जब आइबे की कह गयौ, कह गयौ री॥

Monday, June 16, 2008

ब्रज के सवैया-17

इस बंजर भूमि हृदयस्थल में, निज प्रेम की अमृत धार बहा दो।
अति सुखे मरुस्थल जीवन में, तरु भक्ती की एक कतार लगा दो॥
सम पात झड़ा निज दास खड़ा, फल फूल नवीन बहार लगा दो।
रसलीन बिहीन बनी रसना, रस नाम की एक फुहार लगा दो॥

ब्रज भूषण दूषण दूर करो, निज भक्ती का भाव भरो भयहारी।
मधुसूदन सूदन शीघ्र करो, रिपु मोइ सताइ रहे बड़भारी॥
देवेश महेश जो शेष कलेश, निपेश करो इनको करतारी।
सब छोड़ अनर्थ समर्थ करो, तजूँ तृष्णा तरूँ तव तो त्रिपुरारी॥

जब लौं नहीं खोलो कपाट प्रभो, तब लौं हम द्वार से जाने न वाले।
उस मोहनी मुरति देखन को, कब से तरसे हैं ये आँखों के प्याले॥
बिना झोली भरे अब टलेंगे नहीं, कितना भी कोई हमको समझाले।
अब प्राण पखेरू उड़ेगे यहीं, निज हाथों से आके तू आप उठाले॥

बिषयों में ही ध्यान हमेशा रहे, फिर इन्द्रियों पै प्रतिबन्ध कहाँ।
तन की इस पुष्प सुवाटिका में, हरि प्रेम बिना वो सुगन्ध कहाँ॥
परिवार के मोह के बन्धन में, उठते उर भाव स्वच्छ्न्द कहाँ।
गुणगान प्रभू कोई खेल नहीं, तुम संजय मुरख मंद कहाँ॥

तेरे नाम में प्यार अपार भरा, फिर क्यों किसी मंत्र का जाप करें।
सदा ध्यान हमारा किया तुमने, हम व्यर्थ में यौं ही प्रलाप करें॥
तुम संग सदैव हमारे रहे, हम जैसी भी क्रिया कलाप करें।
देवेश सुनो अब अंत विनय, तुम और मैं शीघ्र मिलाप करें॥

ब्रज के सवैया-16


कुछ शीत प्रकोप जो शांत हुआ, नभ में रविदेव लगे मुसिकाने।
सुखदायक वायु लगी बहने, भर ओज लगीं कलियाँ अँगड़ाने॥
स्वर सुन्दर कोकिला कूकि उठे, बन बागों में वृक्ष लगे बौराने।
चँहु ओर सुसज्जित है धरती, ॠतुराज बसंत लगे ब्रज आने॥

मति मंद हूँ मूड़ गँवार बड़ा, करुणेश्वर ज्ञान का दीप जलाओ।
सम इन्द्र प्रकोप करैं इन्द्रियाँ, ब्रजराज जरा गिरिराज उठाओ॥
कामादिक शत्रु घिराव करैं, कर क्रोध सुदर्शन चक्र चलाओ।
भवसिन्धु में बिन्दु सा व्याकुल हूँ, कृपासिन्धु कृपा कर हाथ बढ़ाओ॥

मोह भँवर भव सागर में, फँसि के प्रभु भान नहीं कर पाया।
करि कोर कृपा घनश्याम दिया, तन मानव मान नहीं कर पाया॥
निशि वासर नित्य रहा भटका, मद मोह से ध्यान नहीं हर पाया।
फँसि राह ही धूल में ध्वस्त रहा, हरि हीरा क ज्ञान नहीं कर पाया॥

माखन चोर अरे चितचोर करो कुछ चोरी का काम भी मेरा।
निज चित्त में चार निवास करें, अति चंचल चोरों ने डाला है डेरा॥
काम और क्रोध तथा मद मोह हैं, नाम बड़े इनके घनघोरा।
चोरी से चोरी करो इनकी, फिर चित्त करो चितचोर बसेरा॥

भवनों में भी भव्य वो शान्ती नहीं, जो कि पुष्प लताओं ललाम में है।
वह मान भला परदेश कहाँ, निज गाँव में जो निज धाम में है॥
अहोभाग्य बड़े उस जीव के हैं, रहता ब्रज के किसी ग्राम में है।
इतना सुख और कहीं भी नहीं, जितना भगवान के नाम में है॥

ब्रज के सवैया-15

दृढ़ लक्ष्य बना गिरिराज खड़ा, ब्रज रक्षण में रहता मतवाला।
फल फूलों से वृक्ष सुशोभित हैं, सम सैन्य खड़े बहु वृक्ष विशाला॥
निर्भीक बना ब्रज का प्रहरी, दृढ़ पैर जमा अतुलित बलशाला।
इससे टकराकर खण्डित हों, बड़े वीर हों या फिर काल कराला॥

जहाँ गेंदा गुलाब के फूल खिले, जल में दल नीरज भा रहे हैं।
बन बाग तड़ाग सुरम्य सजे, खग वृन्द सभी कुछ गा रहे हैं॥
फल फूल सुशोभित वृक्ष सभी, मन में नहीं फूले समा रहे हैं।
कर बद्ध लखें सब स्वागत में, घनश्याम अभी जेसै आ रहे हैं॥

हँसि हौंस हिलोर भरै यमुना, उनमत्त हुई हिय मैं हरसाती।
जल में कलनाद के क्रंदन से, सुकुमारी सुरम्य सा साज सजाती॥
जलधार में प्रेम समेंटे अपार, लखै प्रभु प्रेम में आँसू बहाती।
बहै अविराम बनी निष्काम, हमें कृत कर्म का पाठ पढ़ाती॥

शीतल मन्द समीर बहै, रहें कूकत कोकिला बागन में।
सुचि स्वच्छ सरोवर नीर भरे, खिलें पुष्प सुगन्धित राहन में॥
रिमझिम रिमझिम बदरा बरसै, ॠतुराज हरै उर सावन में।
मनोहारी मनोहर मंगलमय, छवि मोद भरे वृन्दावन में॥

तृण गुल्मों पै चन्द्र छटा छिटकी, नभ में रजनीश विराज रहे हैं।
तरु पल्लव पुष्प लता कलियाँ, कर भाग्य बुलंदी पै नाँज रहे हैं॥
माधुर्य मगन मधुवन मन में, सुरलोक भी सोचि के लाज रहे हैं।
भर नैन कोई लख ले उन को, कर नूतन रास भी आज रहे हैं॥

Thursday, June 12, 2008

ब्रज के सवैया-14

एक दिना अति कीन्हीं कृपा, हरि ने जब गेंद को खेल रचायौ।
श्रीधामा सखा सब संग लिये, फिर खेलन कूँ काली दह पै आयौ॥
खेल ही खेल में फेंक दयी तब, गेंद को एक बहानौं बनायौ।
गेंद के संग ही कूद गयौ लखि, ग्वालन पै सन्नाटौ सौ छायौ॥

अति दुस्तर कालिया नाग कूँ नाथि कें, नृत्य किया अति ही अलबेला।
भर मोद हँसे ब्रजबासी सभी, फन ऊपर श्याम को देखि अकेला॥
कैसे बखानूँ खुशी उर की, तन श्याम ने मेरा सखा झकझोला।
पद छूकर धन्य हुआ यह तन, हरदम बस ध्यान रहे वह बेला॥

स्पर्श किया जब मोहन ने, तब से मन नित्य उमंगित होता।
हुआ जीवन धन्य तभी से मेरा, यह जान हिया भी तरंगित होता॥
उर साज हुई चिर आस महा, परिपूर्णित देखि सारंगित होता।
पद पंकज प्रेम पराग चढ़ा, तन मेरा सदा मकरंदित होता॥

खिले सुन्दर पुष्प ललाम लता, सुचि सौम्य सुगम बरसात हुई है।
सहलाता धरा चलता है पवन, मानो प्रेम परस्पर की बात हुई है॥
निशि को रवि ने हँसि कीन्हा नमन, अति सुन्दर रम्य प्रभात हुई है।
इतना चकराते हो संजय क्यों, ब्रज की तो अभी शुरूआत हुई है॥

चाँदी के थाल ज्यौं सोना सजे, यमुना में किरण सूर्य की आ रहीं हैं।
बैठि कदंब की डालन पै, भर हर्ष मह कोकिला गा रहीं हैं॥
उत ऊपर एक नजर तो करो, घनश्याम घटा ब्यौम में छा रही हैं।
अभी संजय देखो छ्टा ब्रज की, दधि बेचन को गूजरी जा रही हैं॥

ब्रज के सवैया-13

परिपूर्ण हुई पृथ्वी की परिक्रमा, काल ने एक बरस खिसकाया।
अरुणोदय साथ प्रभात हुआ, नव नूतन वर्ष अनूप है आया॥
इस काल का चक्र विचित्र बड़ा, भगवान तुम्हारी ही है सब माया।
नव वर्ष में भक्ती प्रदान करो, गत वर्ष रहा अति ही भरमाया॥

करूँ सदाचार बरस दो हजार, और पाँच में मैं मेरे बनबारी।
ध्यान तेरे में बीते ये अबके बरष, इतनी सी अरज सुनि लीजो हमारी॥
कुछ सेवा के भाव भी देना प्रभो, जिससे निज पाप कटैं अति भारी।
तेरे नाम में श्रद्धा ये मेरी बढ़े, अब ऐसी कृपा करना त्रिपुरारी॥

नृप है नहीं तुल्य उसे समझो, जिसमें जन रक्षण शक्ती न हो।
उसे योगी महमुनि कैसे कहैं, जिसमें जग जाल विरक्ती न हो॥
गुरु शिक्षा का लाभ कहाँ जग में, गुरु में यदि पूर्ण आसक्ति न हो।
वह काव्य भला किस काम का है, जिसमें भगवान की भक्ती न हो॥

सुख शान्ती वहीं पै निवास करै, रहती जहाँ एक दुरात्मा न हो।
मन में सम भाव कहाँ यदि हो, दिखता प्रति उर परमात्मा न हो॥
वह भक्ती विकास कहाँ से करे, करता निज क्रोध का खात्मा न हो।
कविता में प्रवाह कहाँ सरिता, बहती कवि की यदि आत्मा न हो॥

घूम के पल्लौ लपेटे लखे, अविराम बहै इतनी बलखाती।
किसी और के ध्यान में मस्त दिखै, यमुना चलती अति ही इतराती्॥
कोई दिव्य खजाना सा पाइ लखै, अलबेली सी नित्य रहै मुसिकाती।
कुछ तथ्य बता री अरी यमुने, हमको लगती कुछ भेद छुपाती॥

ब्रज के सवैया-12

प्रभो माया का जाल अटूट बड़ा, इसमें फँसि के सबही पछिताते।
इस दुस्तर दुर्लभ दलदल में, जितनी करें कोशिश नीचे ही पाते॥
अति कष्ट सहैं निशि वासर यों, फिर भी यह बात समझ नहीं पाते।
यह माया सताइ रही हमको, बस श्याम में हम जो न ध्यान लगते॥

प्रेम बढ़े जिस जीव का कृष्ण में, माया सदा उससे कतराती।
घनश्याम की भक्त्ती में देखि के भक्त को, द्वार खड़ी अति ही घवराती॥
भक्तों से पेश परै उसकी नहीं, दूर फिरै सदा ठोकर खाती।
देखि के भक्त की भक्ती अटूट, गोलोक की राह को साफ़ बनाती॥

एक दिना जग जाल से हार कें, मैंने ये प्रश्न कन्हैंयाँ से कीन्हा।
भवसागर आखिर बनाया है क्यों, और क्यों जग जन्म जीवों को है दीना॥
जन्म मृत्यु का चक्र बनाया है क्यों, रचा सृष्टि जगत क्यों है घोर प्रवीना।
समझाओ बताओ मुझे भी जरा, ब्रह्माँण्ड बनाये हैं क्यों संगीना॥

बचकानी सी बात यों मेरी सुनी, वह मंद ही मंद लगे मुसिकाने।
भ्रमबीच फँसे मुझको लखि के, दयासिन्धु लगे मुझपै दया खाने॥
छोड़ के पुत्र पिता को चलै यह, तथ्य लगे मुझको समझाने।
दुखी अन्तर्मन यद्यपि है पिता, फिर भी घर पुत्र का जाता बसाने॥

यह जीव चराचर अंश मेरे, और प्रेम मुझे इनसे बड़ा भारी।
यह पुत्र हैं तुल्य मेरे सबही, और मैं ही हूँ सर्व पिता महतारी॥
बस मोह से भूल गये मुझको, इससे रहते दिन रात दुखारी।
पलटे यदि ध्यान जरा इनका, ढिंग मेरे रहैं कटैं बाधायैं सारी॥

ब्रज के सवैया-11

किस भाँति मनाऊँ रिझाऊँ तुम्हें, घनश्याम मुझे बतलाओ जरा।
तप दान भजन और पूजन तेरा, नहीं आता है पापों से जीवन भरा॥
बिना भाव के जीवन नीरस बना, दान भक्ती का दो तो हो जाये हरा।
अति मूरख जानि कृपा करिना, इस दास को बस है तेरा आसरा॥

जब साथ तेरे घनश्याम सदा, फिर काहे को तू डरता है भला।
पग ऐसा न एक धरा पै धरा, जब श्याम न तेरे हो संग चला॥
शिशु भाँति खयाल किया है तेरा, यह सोचि के भी तू नहीं सँभला।
पद पंकजों में गिर जा अब तो, फँस मया में क्यों है बना पगला॥

भोर भयौ दोपहर भयौ, और साँझ भायी फिर भोर है आयौ।
दिस वासर जीवन बीत रह्यौ, और धीरे ही धीरे बुढ़ापौ है छायौ॥
यह जीवन मौत कौ खेल बुरौ, फँसि के इसमें तू रह्यौ भरमायौ।
घनश्याम में चित्त लगायौ नहीं, इस सोने से मौके कूँ व्यर्थ गमायौ।

सुनि मीठी सी तान यों बाँसुरी की, ब्रजबासी हिये हैं तरंगित होते।
हुलसावत हैं यमुना जी महा, बन बाग सभीं हैं सुगन्धित होते॥
गाऊ वत्स तथा वह ग्वाल सभी, सुन अमृतधार उमंगित होते।
बृजराज की बंशी पै झूमैं सभी, यह देखि कें देव आनन्दित होते॥

मझदार में नैया है डोल रही, अब आय कै बल्ली सी थाह लगा दो।
टूट गयी पतवार मेरी, प्रभू प्रेम के धागे की गाँठ लगा दो॥
दिशा ग्यात नहीं भूल राह गया, भटके हुए संजय को राह दिखा दो।
भव सागर में हूँ मैं डूब रहा, घनश्याम जरा निज हाथ बढ़ा दो॥

Tuesday, June 10, 2008

ब्रज के सवैया-10

अहोभाग्य तेरे बड़भागी बड़े, मन मोहन को जो तू है अति भाया।
नन्दगाँव में ऐसा न एक बचा, जिस द्वार से तू न गया हो चुराया॥
भेद किया नहीं मोहन ने, घर हो अपना फिर या हो पराया।
मान बढ़ाकर तेरा महा, फिर माखन चोर सा नाम है पाया॥

एक दिना बलराम से रूठ के, शयाम ने थामी यशोदा की सारी।
बलदाऊ है मोकूँ खिजाबै बड़ौ, संग ग्वालन के मोहि दैवै है गारी।
तेरौ ही जायौ बताबै खुदि, और मोकूँ कहै लायौ मोल बजारी।
मन खेलन कूँ नहीं होत मेरो, अब कहा करूँ मेरी मैया बतारी॥

सुनि श्याम की बात सुहानी बड़ी, मन में मुसिकायी यशोमति मैया।
लै उर कण्ठ लगायौ है लाल कूँ, प्यार भरी फिर लेत बलैया॥
आमन दै आज झूठे गमार कूँ, लूंगी खबर है कहाँ तेरौ भैया।
झूठौ सौ क्रोध करे बलराम पै, बारी ही जाय कन्हैंया पै मैया॥

प्यार अपार करैं निज लाल पै, फूले से गालन कूँ सहरामैं।
निज जायौ बताइ रहीं घनश्याम कूँ, गोधन की झूठी सोगन्ध खामैं॥
लायौ गयौ बलराम बजार से, यों कहि कें सुत कूँ समझामें॥
मैया-कन्हैंया के प्रेम कूँ देखि कें, नन्द महा मन में हरसामें॥

कृष्ण कहूँ घनश्याम कहूँ, सुखधाम कहूँ या कहूँ बनबारी।
कैसे रिझाऊँ कन्हैयाँ तुझे, मति मन्द हूँ मैं सुनि ले मनहारी॥
पूजा करुँ तेरी सेवा करूँ कैसे, आवे नहीं मुझको त्रिपुरारी।
कौनसी बस्तु मैं भेंट करूँ, सर्वस्व तो तेरा ही है गिरिधारी॥

ब्रज के सवैया-9

मोहनी मुरति साँवरी सूरति, आइ बसौ इन नैनन में।
अति सुन्दर रूप अनूप लिये, नित खेलत खात फिरौ वन में॥
निशि वासर पान करूँ उसका, रसधार जो बाँसुरी की धुन में।
बैकुन्ठ से धाम की चाह नहीं, बस बास करूँ वृन्दावन में॥

पीठ से पीठ लगाइ खड़े, वह बाँसुरी मन्द बजा रहे हैं।
अहोभाग्य कहूँ उस धेनु के क्या, खुद श्याम जिसे सहला रहे हैँ॥
बछड़ा यदि कूद के दूर गयौ, पुचकार उसे बहला रहे हैं॥
गोविंद वही, गोविंद वही, गोपाल वही कहला रहे हैं॥

नाम पुकारि बुलाई गयी, तजि भूख और प्यास भजी चली आयी।
कजरी, बजरी, धूमरि, धौरी, निज नामन से वो रहीं हैं जनायी॥
धूप गयी और साँझ भयी तब, बाँसुरी मन्द दयी है बजायी।
घनश्याम के पीछे ही पीछे चलें, वह धेनु रहीं हैं महा सुख पायी॥

बैकुन्ठ नहीं, ब्रह्मलोक नहीं, नहीं चाह करूँ देवलोकन की।
राज और पाठ की चाह नहीं, नहीं ऊँचे से कुन्ज झरोकन की॥
चाह करूँ बस गोकुल की, यशोदा और नंद के दर्शन की।
जिनके अँगना नित खेलत हैं, उन श्याम शलौने से मोहन की॥

गोविंद हरे गोपाल हरे, जय जय प्रभु दीनदयाल हरे।
इस मन्त्र का जो नित जाप करे, भव सिंन्धु से पार वो शीघ्र तरे॥
वह भक्ती विकास करे नित ही, और पाप कटें उसके सगरे।
घनश्याम के ध्यान में मस्त रहे, उर में सुख शाँति निवास करे॥

Monday, June 9, 2008

ब्रज के सवैया-8

वह दिव्य खजाना लिये फिरते, फिर भी कोई लेने को आता नहीं।
निज भक्तों की नित्य भलाई सिवा, उनको कुछ और है भाता नहीं॥
पिता पुत्र वियोग में कैसे रहे, इसी भाँति उन्हैं रहा जाता नहीं।
अनजान बना यह जान के भी, मूढ़ संजय तू क्यों शरमाता नहीं॥

रसना बस है बस ना सम ही, हरी नाम जिसे कभी आता न हो।
वह नेत्र ही क्या हरदम जिनको, हरी दर्श बिना रहा जात न हो॥
वह चित्त भला किस काम का है, यदि श्याम में ध्यान लगाता न हो।
वह कीर्तन क्या भगतों के लिये, तन को मन को जो हिलाता न हो॥

प्रभू आखिर क्या हम जीवों में है, जिनके बिना आपको चैन नहीं।
करते-करते बस कोर कृपा, थकते बस आपके नैन नहीं॥
करुणा कितनी है भरी तुममें, कहते बनते मुझे बैन नहीं।
अति चिन्तित हो हम पापियों को, सुख से करते क्यों हो चैन नहीं॥

एक बात कहूँ सुनो आज सखा, मन में जिसे सोचि खुशी अति छाई।
गुरुवार दिवस तिथि एकदशी, परदेश में आज मिले सब भाई॥
सतसंग करैं सब बैठि के संग, हरी गुणगान रहे हम गाई।
यह है सब माधव की ही कृपा, करते-करते जो रहे न अघाई॥

धुनि बाँसुरी की मोइ प्यारी लगे, उसे मन्थर मंद बजाते रहो।
अति दुर्लभ जो देवताओं को है, वह दर्शन दिव्य कराते रहो॥
अग्यान हूँ बुद्धि कहाँ मुझ में, सदमारग नित्य दिखाते रहो।
भटकूँ यदि राह में तेरी कभी, ढ़िंग आपने श्याम बुलाते रहो॥

ब्रज के सवैया-7

पीछे ही पीछे वो भाजत हैं, एक कारी सी काँमरि लिए अपनाई।
धेनु चरावत डोलत हैं, ब्रज में सँग ग्वालों के टोली बनाई॥
अति सुन्दर लीला किये फिरते, धेनु सेवा में पुन्य रहे हैं बताई।
गोलोक कूँ छोड़ि के गोकुल में गोविंद रहे देखो गाय चराई॥

माता यशोदा पै आयी शिकायत कि, लाला ने तेरे ने माँटी है खाई।
धाईं सुन मैया कन्हैंयाँ के पास, कहा तेरे मुँह में दै मोकूँ बताई॥
भोले से लाला ने खोल दियौ मुँह तो, तीनहुँ लोक दये हैं दिखाई।
ब्रह्म परम परमेश्वर है यह, जानि यशोदा रहीं चकराई॥

हाय महा अपराध कियौ, बिना जाने ही ब्रह्म की कीन्ही पिटाई।
पाप बड़ौ मैंने भारी कियौ, परै जीवन दीखत मोर खटाई॥
श्याम ने देखी यों मौया दुखी, मन से यह बात दयी है मिटाई।
भूलीं यशोदा ये लीला महा, निज लाल कूँ कंठ रहीं हैं लगाई॥

अति चंचल ज्यों चपला बनि कें, क्यों है घूमत चित्त की चाहन में।
भटक्यौ भटक्यौ सौ तू डोलत है, इन माया की टेड़ी सी राहन में॥
कछू हाथ लगैगौ न तेरे यहाँ, अनदेखी गली और गाँमन में।
लगि जा लगि जा मन मूरख तू, अब तौ घनश्याम के पामन में॥

जब आगे को पैर बढ़ा ही दिया, तव राह के काँटों से क्या डरना।
पथरीली हो गीली हो जैसी भी हो, अब पीछे नहीं हमको मुड़ना॥
भव जाल को छोड़ि के दूर चले, तव माया के फाँसे में क्यों फँसना।
घनश्याम ही एक हैं लक्ष्य बने, अब ध्यान उन्हीं का हमें धरना॥

Friday, June 6, 2008

ब्रज के सवैया-6

जानत मोइ परायौ तू है, तासों बात करै मोसों बड़ी सयानी।
लौना सलौना सो देति नहीं, करै थोथी सी बात ये मात मैं जानी॥
सुनि लाला की बात यों तोतरी सी,पुचकारति हैं लखि नंद की रानी।
मनमोहन की उस लीला कूँ सोचि कें, संजय आवत आँखन पानी॥

हुआ जीवन धन्य तभी समझो, उर में जब भक्ती चिराग बढ़े।
धन दौलत मोह तथा ममता, इन विकारों से नित्य ही त्याग बढ़े॥
कोई बात सुहाए जगत की नहीं, हरी कीर्तन में नित राग बढ़े।
यह संभव है जब मोहन के, पद पकजों में अनुराग बढ़े॥

भगवान को देखा है क्या तुमने, यह प्रश्न हुआ मुझसे सुनो भाई।
अब उत्तर क्या इस प्रश्न का दूँ, यह सोचि के मेरी मती चकराई॥
जल अग्नि तथा सबरे जग में, हर बस्तु में नाथ रहे हो समाई।
हर मानव में हर दानव में, भगवान ही मोकूँ हैं देत लखाई॥

लखि व्यंजन भिन्न प्रकार बने, व्यक्ति भूखा अति जैसे खावत है।
मरु भूमि में देखि के नीर नदी, कोई प्यासा पथिक जैसे धावत है॥
तरु पल्लव की घन छाया तले, वह बैठि कें जो सुख पावत है।
लिखने घनश्याम की लीलाऔं में, इसीं भाँति मुझे रस आवत है॥

बुद्धि दयी चतुराई दयी, दयी मानव देह कृपा करि कें।
भवसागर से तरने को दयी, भक्ती भाव का ध्यान सदा धरि कें॥
जग जाल से छूटने हेतु दयी, न कि माया के चक्कर में परि कें।
यह मुक्ती के हेतु दयी है गयी, जो कि जन्म न हो अबके मरि कें॥

ब्रज के सवैया-5

हरि लीला बखान मैं कैसे करूँ, वो अपार हैं कोई भी पार न पाई।
निज भक्तन के उद्धारन कूँ, ब्रज में अवतार लियौ यदुराई॥
डग तीन में नाप दियौ ब्रह्माँड, वो लीला करी अति ही सुखदाई।
पर नंद के द्वार वो जूझत हैं, एक छोटी सी खाँदी भी खाँदी न जायी॥

शिव ब्रह्म सदा अपने उर में, नित ध्यान जिन्ही का ही ध्यावत हैं।
अति योगी महामुनि वृंद सभी, जिनको भजि कें सुख पावत हैं॥
पर ब्रह्म तथा परमेश्वर भी, वह धाम परम कहलावत हैं।
ब्रज में उन श्याम शलौने से को, ब्रजनारि दै छाछि नचावत हैं॥

नैंन वही प्रभु प्रेम में लीन, जो आँसू की धार अपार बहामें।
हाथ वही करतालन कूँ, हरि कीर्तन में दिन रात बजामें॥
पैर वही रोके न रुकें, गुणगान प्रभू सुनि नाँचे ही जामें।
और ज्यों न चलें इस भाँति तो संजय, सोने से मौखे को व्यर्थ गमामें॥

नवनीत पुनीत निकारन कूँ, मथि छाछि रहीं हैं जसोमति रानी।
उत रोवत से कछु सोवत से, घनश्याम ने आइकें थामी मथानी॥
भूख लगी मोइ मैया बड़ी, वह तोतरी बात थी अमृत सानी।
मनमोहन की उस लीला कूँ सोचि कें, संजय आवत आँखन पानी॥

छोड़ि दै श्याम करुं केसे काम मैं, डीठ बड़ौ तू करै मन मानी।
मथूँ छाछि तौ माँखन निकरूँ तोकूँ, फिर मैया ने बोली यौं मीठी सी बानी॥
छोड़त हाथ न बात सुनै कछु, आज कहा तैने करिबे की ठानी।
मनमोहन की उस लीला कूँ सोचि कें, संजय आवत आँखन पानी॥

Thursday, June 5, 2008

ब्रज के सवैया-4

चित्त चुराइ के लौ गयौ वो, ब्रज मंडल में है जो चोरों का राजा।
माखन चोर है नाम सखी, नित चोरी करै खाबै माखन ताजा॥
चित्त की चोरी करी सो करी, अब चित्त में भी चित चोर तू आजा।
बैठा हूँ तेरी में राह लखूँ, मति देरी करै तोकूँ आबै न लाजा॥

हर स्वाँस पै जीवन छीज रह्यौ, तनिकउ मोहि चैन न आवत है।
कुछ छूट रहा कोई लूट रहा, जग में मोइ कोई न भावत है॥
समझा इतनी सी भी बात नहीं, नहीं तोइ जो कोई सुहावत है।
जग जा अब संजय मूरख भी, हरी नाम तू क्यों नहीं गावत है॥

निकलै जब प्राण मेरे तन से, तेरा नाम हो कृष्ण मेरे मुख मैं।
मरने में भी कष्ट जरा सा न हो, सारा जीवन ये बीता मेरा दुख में॥
मोह माया सताये न अंत समय, ध्यान मेरा रहे बस तेरे रुख में।
फिर से आना न हो इस जगत में प्रभो, पास तेरे रहूँ में सदा सुख में॥

शशि सूर्य सदा जिसकी मरजी, भू मंडल को चमकावत हैं।
देवलोकौं में बैठे वो लोग सभी, नित गान उसी का ही गावत हैं॥
सब सागर और महासागर, जिसके भय से लहरावत हैं।
वो देखि जसोमति की लकुती, भयभीत भये से यौं भागत हैं॥

मुसिकाइ कें वे यदि दृष्टि करें, तो सृष्टि नयी रच जावत हैं।
नर जीव की देखो बिसात ही क्या, सुर वृंद सभी घवड़ाबत हैं॥
जिनकी भृकुती तिरछी लखि कें, ब्रह्माँड भी थर थर काँपत हैं।
वो देखि जसोमति की लकुती, भयभीत भये से यौं भागत हैं॥

ब्रज के सवैया-3

यमदूतौँ से दूर यदी रहना, यमुना जल मैं स्नान करो।
सुख शान्ति मिलेगी असीम तुम्हैं, नाम अमृत का यदि पान करो॥
क्यों है मानव देह मिली हमको, इसका भी जरा कुछ ध्यान करो।
भवसागर से तरना यदि है, मनमोहन का गुनगान करो॥

टेड़ी सी बात की बात चली, तब टेड़े की बात मेरे मन आयी।
टेड़ौ चलै और टेड़ौ ही देखै, वो टेड़ौ सो ठाड़ौ रह्यो मुसिकायी॥
टेड़ी बहै यमुना जल धार, वो टेड़े कूँ देखि रही है सिहायी।
पर टेड़े को पन्थ है सूदौ बड़ौ, जो टेड़ौ चलै कबहू नहीं पायी॥

मन मन्दिर अन्दर साँवरिया, अब आने मैं क्यों शरमाते हो तुम।
शरमाना ही था इतना यदि तो फिर, बाँसुरी मन्द बजाते हो क्यों॥
उर मध्य जगा अनुराग महा, इतना चले दूर भी जाते हो क्यों।
इतना तो सताना भी ठीक नहीं, नहीं नैंनौं में तुम बस जाते हो क्यों॥

उन ऊचे से कुंजौं का अर्थ ही क्या, जिनमें कोई व्यक्ति नहीं रहता हो।
वह नदी नहीं बस खाई तो है, जिसमें झर नीर नहीं बहता हो॥
उस ग्यानी की विद्या भी छीड़ हुई, समझो वो जो औरौं से ना कहता हो।
उस भक्त की भक्ती अधूरी ही है, पद पंकज जो माधव के ना गहता हो॥

दान किये तप यज्ञ किये और, योग समाधी में बैठि समायौ।
चारौं दिशाऔं के तीर्थ किये और, भाज्यौ ही डोल्यौ रह्यौ बौरायौ॥
चारहुँ बेद पुरान पढ़े परि, पार नहीं तौऊ नेंकऊ पायौ।
और ढ़ूड्यौ जो सुदे सुभायन सूँ, वृंदावन गाय चरावत पायौ॥

Wednesday, June 4, 2008

ब्रज के सवैया-2

अंत समय जब आये प्रभू, चले आना न देर जरा करना।
निज साथ लिवाकर ले चलना, मेरे दोषौं पे ध्यान नहीं धरना॥
दोषौं पे ध्यान दिया दीनानाथ, तो सैज नहीं भव से तरना।
अब नाथ उबारौगे आप मुझे, तेरे द्वारे पै मैंने दिया धरना॥

आप दीनौं के बंधू करुना सिन्धू, दुखसागर को नागर मेरे हरना।
कृपा ऐसी करौ अब नाथ प्रभू, तेरा नाम रटे बस ये रसना॥
तेरे ध्यान मैं जीवन ये सारा कटे, तेरा नाम ही लेकर हो मरना।
अब नाथ उबारौगे आप मुझे, तेरे द्वारे पै मैंने दिया धरना॥

दिन रात रटूं तेरा नाम प्रभो, कुछ और नहीँ मुझको करना।
कृष्ण भक्ती की शक्ती प्रदान करो, तभी काम होगा ये मेरा सरना॥
जोर पूरा लगाकर देख लिया, पर बात बने ना ये तेरे बिना।
अब नाथ उबारौगे आप मुझे, तेरे द्वारे पै मैंने दिया धरना॥

अहो भाग्य तेरे बाँसुरी हैं बड़े, कर कन्जौं मैं साँवरे साजती हो।
मधु मिश्रित से मनमोहन के, अधरौं पे धरी तुम बाजती हो॥
कटि पीत के मध्य फँसी कबहू, अति श्याम शरीर पे राजती हो।
कुछ भेद बता हमको भी अरी, मनमोहन ओ जो तू भावती हो॥

धूप और ताप सही बरषा, जब नाम सखी मेरौ बाँस कहयौ।
प्रणौँ की आहुती दे कर के, दियौ काट हियौ फिर गयौ घर लायौ॥
छेद शरीर किये सब दूर, जो दोष थे शेष नयौ तन पायौ।
औ बाँसुरी मेरौ नाम 
पड़्यौ, तब मोहन ने मुझकूँ अपनायौ॥ 

Monday, June 2, 2008

ब्रज के सवैया-1

सुमिरू गणदेव गजानन कूं, उर मैं धरूं ध्यान सरस्वती माता।
नित निर्मल बुद्धि प्रदान करें, लिखूं गीत हरी के सदा सुखदात॥
मन मैं है उमंग तरंग बड़ी, पर ग्यान नहीं इससे चकराता।
यदि कोर क्रिपा गुरुदेव करें तो, दुर्लभ भी सुलभ बन जात॥


शब्दों के पुश्पों को ठौर करूं, और भाव के धागों में गूंथूं पिरोऊ।
फिर भक्ती का लेप लगा कर के, इक हार बना निज हाथ संजोऊ॥
मनमोहन के पद पन्कजों में, धरूं शीश सदा फिर रोऊं सो रोऊ।
अश्रू बिंदुओं से पग धोऊ तथा फिर, माला चढ़ा प्रभू प्रेम में खोऊं॥


करलूं तब सार्थक जीवन को, जो व्यतीत हुआ सो अरीति गंवाया।
प्रभू प्रेम में चित्त लगाया नहीं, फंस माया में नित्य रहा भरमाय॥
आसक्त रहा धन दौलत में, मद मान में बैठ सदा गरवाय।
कर दैं यदि दीनदयाल कृपा, तर संजय जाय माया का सताय॥

प्रभू दीनदयाल कहाते हो तो, फिर क्यों न दया की मैं आश करूं।
अति दीन मलीन दुखी नित हूं, बिना कोर कृपा कैसे मैं सुधरूं॥
कृपा दृष्टि की वृष्टि भी कृष्ण करो, पद पंकज की रज शीश धरूं।
अब नाथ तुम्हारे ही हाथ में है, मेरी डोर कहो मैं बनू बिगरूं ॥

प्रिय चन्दा लगै है चकोर को ज्यों, लगै सावन मास सुहानौं पपैया।
संग मित्रौं के बैठे रहो जितने, पर बात निराली मिलैं जब भैया॥
प्रेम करे पत्नी कितनौंउ पर, पाइ सकै वो न प्यारी सी मैया।
देव मुझे सब प्यारे लगैं, उर मध्य बसे पर कृष्ण कन्हैंया॥