Thursday, June 5, 2008

ब्रज के सवैया-3

यमदूतौँ से दूर यदी रहना, यमुना जल मैं स्नान करो।
सुख शान्ति मिलेगी असीम तुम्हैं, नाम अमृत का यदि पान करो॥
क्यों है मानव देह मिली हमको, इसका भी जरा कुछ ध्यान करो।
भवसागर से तरना यदि है, मनमोहन का गुनगान करो॥

टेड़ी सी बात की बात चली, तब टेड़े की बात मेरे मन आयी।
टेड़ौ चलै और टेड़ौ ही देखै, वो टेड़ौ सो ठाड़ौ रह्यो मुसिकायी॥
टेड़ी बहै यमुना जल धार, वो टेड़े कूँ देखि रही है सिहायी।
पर टेड़े को पन्थ है सूदौ बड़ौ, जो टेड़ौ चलै कबहू नहीं पायी॥

मन मन्दिर अन्दर साँवरिया, अब आने मैं क्यों शरमाते हो तुम।
शरमाना ही था इतना यदि तो फिर, बाँसुरी मन्द बजाते हो क्यों॥
उर मध्य जगा अनुराग महा, इतना चले दूर भी जाते हो क्यों।
इतना तो सताना भी ठीक नहीं, नहीं नैंनौं में तुम बस जाते हो क्यों॥

उन ऊचे से कुंजौं का अर्थ ही क्या, जिनमें कोई व्यक्ति नहीं रहता हो।
वह नदी नहीं बस खाई तो है, जिसमें झर नीर नहीं बहता हो॥
उस ग्यानी की विद्या भी छीड़ हुई, समझो वो जो औरौं से ना कहता हो।
उस भक्त की भक्ती अधूरी ही है, पद पंकज जो माधव के ना गहता हो॥

दान किये तप यज्ञ किये और, योग समाधी में बैठि समायौ।
चारौं दिशाऔं के तीर्थ किये और, भाज्यौ ही डोल्यौ रह्यौ बौरायौ॥
चारहुँ बेद पुरान पढ़े परि, पार नहीं तौऊ नेंकऊ पायौ।
और ढ़ूड्यौ जो सुदे सुभायन सूँ, वृंदावन गाय चरावत पायौ॥

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