Thursday, June 5, 2008

ब्रज के सवैया-4

चित्त चुराइ के लौ गयौ वो, ब्रज मंडल में है जो चोरों का राजा।
माखन चोर है नाम सखी, नित चोरी करै खाबै माखन ताजा॥
चित्त की चोरी करी सो करी, अब चित्त में भी चित चोर तू आजा।
बैठा हूँ तेरी में राह लखूँ, मति देरी करै तोकूँ आबै न लाजा॥

हर स्वाँस पै जीवन छीज रह्यौ, तनिकउ मोहि चैन न आवत है।
कुछ छूट रहा कोई लूट रहा, जग में मोइ कोई न भावत है॥
समझा इतनी सी भी बात नहीं, नहीं तोइ जो कोई सुहावत है।
जग जा अब संजय मूरख भी, हरी नाम तू क्यों नहीं गावत है॥

निकलै जब प्राण मेरे तन से, तेरा नाम हो कृष्ण मेरे मुख मैं।
मरने में भी कष्ट जरा सा न हो, सारा जीवन ये बीता मेरा दुख में॥
मोह माया सताये न अंत समय, ध्यान मेरा रहे बस तेरे रुख में।
फिर से आना न हो इस जगत में प्रभो, पास तेरे रहूँ में सदा सुख में॥

शशि सूर्य सदा जिसकी मरजी, भू मंडल को चमकावत हैं।
देवलोकौं में बैठे वो लोग सभी, नित गान उसी का ही गावत हैं॥
सब सागर और महासागर, जिसके भय से लहरावत हैं।
वो देखि जसोमति की लकुती, भयभीत भये से यौं भागत हैं॥

मुसिकाइ कें वे यदि दृष्टि करें, तो सृष्टि नयी रच जावत हैं।
नर जीव की देखो बिसात ही क्या, सुर वृंद सभी घवड़ाबत हैं॥
जिनकी भृकुती तिरछी लखि कें, ब्रह्माँड भी थर थर काँपत हैं।
वो देखि जसोमति की लकुती, भयभीत भये से यौं भागत हैं॥

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