Tuesday, August 5, 2008
ब्रज के दोहे: भाग-1
अरे बाबरे साँवरे, कूँ तू चित्त लगाइ।
श्याम रंग जो जमि रह्यौ, “श्याम” रंग से जाइ॥1॥
ओ मन मूरख जागि जा, सकल गुणन की खान।
मुरलीधर घनश्याम हैं, उनको तू पहचान॥2॥
जिस माया के जाल में, फँसा हुआ भरमाइ।
नित्य चाकरी करति है, उनके ढिंग वो जाइ॥3॥
कलियुग में दुख बहुत हैं, पर एक सुख अपार।
जो सुमिरै हरि नाम कूँ, झट से उतरे पार॥4॥
क्षण भन्गुर इस जगत में, पति पत्नी और पुत्र।
झूठे सब सम्बन्ध हैं, माधव सच्चे मित्र॥5॥
दौड़ा दौड़ा फिरत है, नहीं मिलैं भगवान।
परमेश्वर हिय में बसैं, जब धर देखौ ध्यान॥6॥
राधे तुम घनश्याम की, प्रियतम अपरम्पार।
कृपा करो मातेश्वरी, हो चरणों में प्यार॥7॥
ए मन क्यों इस जगत में, तू फँसता है व्यर्थ।
चार दिना का खेल है, नहीं कोई भी अर्थ्॥8॥
भोर भयो दोपहर भी, अब आयेगी शाम।
क्षण भन्गुर यह जिंदगी, उनको करो प्रणाम॥9॥
मेरी मेरी में रहा, बिता दिया सब काल।
प्रभू ध्यान कीना नहीं, फँसा रहा जग जाल॥10॥
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1 comment:
sundar lagi
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