Friday, June 6, 2008

ब्रज के सवैया-6

जानत मोइ परायौ तू है, तासों बात करै मोसों बड़ी सयानी।
लौना सलौना सो देति नहीं, करै थोथी सी बात ये मात मैं जानी॥
सुनि लाला की बात यों तोतरी सी,पुचकारति हैं लखि नंद की रानी।
मनमोहन की उस लीला कूँ सोचि कें, संजय आवत आँखन पानी॥

हुआ जीवन धन्य तभी समझो, उर में जब भक्ती चिराग बढ़े।
धन दौलत मोह तथा ममता, इन विकारों से नित्य ही त्याग बढ़े॥
कोई बात सुहाए जगत की नहीं, हरी कीर्तन में नित राग बढ़े।
यह संभव है जब मोहन के, पद पकजों में अनुराग बढ़े॥

भगवान को देखा है क्या तुमने, यह प्रश्न हुआ मुझसे सुनो भाई।
अब उत्तर क्या इस प्रश्न का दूँ, यह सोचि के मेरी मती चकराई॥
जल अग्नि तथा सबरे जग में, हर बस्तु में नाथ रहे हो समाई।
हर मानव में हर दानव में, भगवान ही मोकूँ हैं देत लखाई॥

लखि व्यंजन भिन्न प्रकार बने, व्यक्ति भूखा अति जैसे खावत है।
मरु भूमि में देखि के नीर नदी, कोई प्यासा पथिक जैसे धावत है॥
तरु पल्लव की घन छाया तले, वह बैठि कें जो सुख पावत है।
लिखने घनश्याम की लीलाऔं में, इसीं भाँति मुझे रस आवत है॥

बुद्धि दयी चतुराई दयी, दयी मानव देह कृपा करि कें।
भवसागर से तरने को दयी, भक्ती भाव का ध्यान सदा धरि कें॥
जग जाल से छूटने हेतु दयी, न कि माया के चक्कर में परि कें।
यह मुक्ती के हेतु दयी है गयी, जो कि जन्म न हो अबके मरि कें॥

No comments: