Tuesday, July 15, 2008

ब्रज के सवैया-21

जिसने कभी प्रेम किया ही नहीं, वह प्रेम की भाषा को जानेगा क्या।
प्रभू प्रेम पियूस के सागर हैं, प्रिय प्राणी सभी यह मानेगा क्या॥
प्रीति की रीति में अश्रु बहा, दृगधार सनेह में सानेगा क्या।
उर अंतर झाँक न देखा कभी, परमेश्वर को पहचानेगा क्या॥

करुणानिधि हाय पुकार रहे, करुणा करि के हमरी सुधि लीजै।
तुम प्रेम सरोवर हो जग के, पद पंकज प्रेम की भिच्छा दो दीजै॥
मम कामुक चित्त कठोर बड़ा, किस भाँति ये प्रेम तुम्हारे पसीजै।
निज प्रेम की गंगा बहा दो नहा, जिसमें यह पाम पराग पै रीझै॥

डर किंचित मृत्यु नहीं हमको, अफ़सोस की भी कोई बात नहीं।
लखी ऐसी न कोई जगह जग में, दिन ही दिन हों जहाँ रात नहीं॥
जब आये अकेले थे जाँयेगे भी, नहीं दुख हमें कोई साथ नहीं।
पर श्याम न नैंन सगारी हुए, यह सोच हमें बरदास्त नहीं॥

अनुराग के राग में लीन हुए, गठबंधन पूर्ण हुए वर्ष बाराह।
इस माया महा ने यों हाथ धरा, प्रभू ध्यान बिना यह वक्त गुजारा॥
मद मोह का चाकर नित्य बना, नहीं प्रेम किया परमेश्वर प्यारा।
अब संजय एक ही राह बची, घनश्याम में ध्यान लगा दो ये सारा॥

इस जीविका के प्रतिपालन में, हुआ जीवन व्यर्थ अनर्थ बिचारा।
यह कामुक चित्त विचित्र बड़ा, भटकाता फिरे हमको ही हमारा॥
कर में कलि काल कटार लिये, दिखता नहीं कोई बचाव का चारा।
अब संजय एक ही राह बची, घनश्याम में ध्यान लगा दो ये सारा॥

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