Tuesday, July 15, 2008

ब्रज के सवैया-22

ब्रज के सवैया-22

खग वृन्द न सीजते अन्न कभी, चलता है भला इनका भी गुजारा।
फिर भी हम सीखते सीख नहीं, धन जोड़ने में रहते भरमारा॥
मुख मोड़ के दूर खड़े न सुनैं, सब जीवों का आखिर वोही सहारा।
अब संजय एक ही राह बची, घनश्याम में ध्यान लगा दो ये सारा॥

पुरवैया चली मदमाती हुई, कमनीय कलिन्दी का कूल किनारा।
वन वृक्ष सुगन्धित पुष्प खिले, मनमोहक मोदक सौम्य नजारा॥
बड़ता हुआ ग्वालों का झुन्ड चला, सबने कोई खेल विषेश बिचारा।
मन मान मनोज मरोड़े हुए, चला खेलन आज है नन्द दुलारा॥

नव नूतन भाव कहाँ उपजें, हिय में हृदयेश्वर भक्ति नहीं।
प्रभु प्रेम की धारा बहेगी कहाँ, जल जाल से पूर्ण विरक्ति नहीं॥
मन चंचल द्वन्द अशाँति भरी, पद पंकज श्याम आसक्ति नहीं।
बिना प्रेम के अश्रु बहाए कभी, निज-आत्म की होती है त्रप्ति नहीं॥

बहु भाँति प्रयास किये हमने, चित में वह चित्रित चित्र न होता।
अति चंचलता मन में है भरी, घनश्याम के ध्यान में है नहीं खोता॥
भव सागर में उलझा हूँ हुआ, नहीं चैन मिले नित खाता हूँ गोता।
बिना कोर कृपा परमेश्वर के, भला कैसे रहूँ प्रभू प्रेम में रोता॥

अब छोड़ भी दो छलिया छल को, वह रूप अनूप दिखाओ जरा।
दुख दर्द भरे दृग दीन कहें, कर दान दया बस आओ जरा॥
पद पंकज भक्ति प्रदान करो, निज प्रेम का पाठ पढ़ाओ जरा।
नट नागर ध्यान में आकर के, अब प्राण पखेरू उड़ाओ जरा॥

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