Thursday, July 17, 2008

ब्रज के सवैया-23


मुरली धर ध्यान धरो इसका, यह दास उदास पुकार रहा।
कर कोर कृपा वह दृष्टि करो, भर प्रेम बहा दृग धार रहा॥
मन मोहनी मूरति सुन्दर पै, निज प्राण प्रसून उबार रहा।
अब दर्शन देकर धन्य करो, बस नाम तुम्हारा उचार रहा॥

सर्वस्व चुराकर ले गये हो, नहीं बाकी बचा कुछ मेरा अहो।
इतनी तो सजा इस चोरी की हो, मेरे नैनों की जेल में बंद रहो॥
निशि बासर नाम लगा पहरा, नहीं भाग सको यदि भाग चहो।
इस चोरी बड़ी की ये थोड़ी सजा, यदि ज्यादा लगे तब तो तुम कहो॥

देवेश दयाकर दृष्टि करो, तन तामस ताप तपा जा रहा है।
मन बुद्धि भयंकर दुसित है, नहीं नाम भी तेरा जपा जा रहा है॥
कुछ तो उपयोग करूँ इसका, यह जीवन व्यर्थ खपा जा रहा है।
अब देर करो करुणेश नहीं, बिना अमृत धार कृपा जा रहा है॥

दुख दर्द भरे दुख-आलय में, सुख की अभिलाषा है व्यर्थ यहाँ।
क्षण भंगुर जीवन की बगिया, रमने का नहीं कोई अर्थ यहाँ॥
भगवान की भक्ति करी जो नहीं, समझो किया खूब अनर्थ यहाँ।
परिवार न मित्र न कोई सगा, प्रभु सच्चे हैं सथी समर्थ यहाँ॥

मँढ़राता रहूँ मकरंद को मैं, प्रभु प्रेम पराग हुए लपटाये।
परवाह करूँ नहीं जीवन की, रवि अस्त हुए दल कैद कराये॥
मदमस्त रहूँ रस पीकर के, गुणगान करूँ नित रहूँ गुनगुनाये।
पद पंकज श्याम पै बारा करूँ, तन मानस जीवन का फल पाये॥

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

भक्ति भाव में डूबे सवैय भक्ति रस मे डुबो देते हैं।अति सुन्दर!