Thursday, June 12, 2008

ब्रज के सवैया-12

प्रभो माया का जाल अटूट बड़ा, इसमें फँसि के सबही पछिताते।
इस दुस्तर दुर्लभ दलदल में, जितनी करें कोशिश नीचे ही पाते॥
अति कष्ट सहैं निशि वासर यों, फिर भी यह बात समझ नहीं पाते।
यह माया सताइ रही हमको, बस श्याम में हम जो न ध्यान लगते॥

प्रेम बढ़े जिस जीव का कृष्ण में, माया सदा उससे कतराती।
घनश्याम की भक्त्ती में देखि के भक्त को, द्वार खड़ी अति ही घवराती॥
भक्तों से पेश परै उसकी नहीं, दूर फिरै सदा ठोकर खाती।
देखि के भक्त की भक्ती अटूट, गोलोक की राह को साफ़ बनाती॥

एक दिना जग जाल से हार कें, मैंने ये प्रश्न कन्हैंयाँ से कीन्हा।
भवसागर आखिर बनाया है क्यों, और क्यों जग जन्म जीवों को है दीना॥
जन्म मृत्यु का चक्र बनाया है क्यों, रचा सृष्टि जगत क्यों है घोर प्रवीना।
समझाओ बताओ मुझे भी जरा, ब्रह्माँण्ड बनाये हैं क्यों संगीना॥

बचकानी सी बात यों मेरी सुनी, वह मंद ही मंद लगे मुसिकाने।
भ्रमबीच फँसे मुझको लखि के, दयासिन्धु लगे मुझपै दया खाने॥
छोड़ के पुत्र पिता को चलै यह, तथ्य लगे मुझको समझाने।
दुखी अन्तर्मन यद्यपि है पिता, फिर भी घर पुत्र का जाता बसाने॥

यह जीव चराचर अंश मेरे, और प्रेम मुझे इनसे बड़ा भारी।
यह पुत्र हैं तुल्य मेरे सबही, और मैं ही हूँ सर्व पिता महतारी॥
बस मोह से भूल गये मुझको, इससे रहते दिन रात दुखारी।
पलटे यदि ध्यान जरा इनका, ढिंग मेरे रहैं कटैं बाधायैं सारी॥

No comments: