Thursday, June 12, 2008

ब्रज के सवैया-13

परिपूर्ण हुई पृथ्वी की परिक्रमा, काल ने एक बरस खिसकाया।
अरुणोदय साथ प्रभात हुआ, नव नूतन वर्ष अनूप है आया॥
इस काल का चक्र विचित्र बड़ा, भगवान तुम्हारी ही है सब माया।
नव वर्ष में भक्ती प्रदान करो, गत वर्ष रहा अति ही भरमाया॥

करूँ सदाचार बरस दो हजार, और पाँच में मैं मेरे बनबारी।
ध्यान तेरे में बीते ये अबके बरष, इतनी सी अरज सुनि लीजो हमारी॥
कुछ सेवा के भाव भी देना प्रभो, जिससे निज पाप कटैं अति भारी।
तेरे नाम में श्रद्धा ये मेरी बढ़े, अब ऐसी कृपा करना त्रिपुरारी॥

नृप है नहीं तुल्य उसे समझो, जिसमें जन रक्षण शक्ती न हो।
उसे योगी महमुनि कैसे कहैं, जिसमें जग जाल विरक्ती न हो॥
गुरु शिक्षा का लाभ कहाँ जग में, गुरु में यदि पूर्ण आसक्ति न हो।
वह काव्य भला किस काम का है, जिसमें भगवान की भक्ती न हो॥

सुख शान्ती वहीं पै निवास करै, रहती जहाँ एक दुरात्मा न हो।
मन में सम भाव कहाँ यदि हो, दिखता प्रति उर परमात्मा न हो॥
वह भक्ती विकास कहाँ से करे, करता निज क्रोध का खात्मा न हो।
कविता में प्रवाह कहाँ सरिता, बहती कवि की यदि आत्मा न हो॥

घूम के पल्लौ लपेटे लखे, अविराम बहै इतनी बलखाती।
किसी और के ध्यान में मस्त दिखै, यमुना चलती अति ही इतराती्॥
कोई दिव्य खजाना सा पाइ लखै, अलबेली सी नित्य रहै मुसिकाती।
कुछ तथ्य बता री अरी यमुने, हमको लगती कुछ भेद छुपाती॥

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