Thursday, June 12, 2008

ब्रज के सवैया-14

एक दिना अति कीन्हीं कृपा, हरि ने जब गेंद को खेल रचायौ।
श्रीधामा सखा सब संग लिये, फिर खेलन कूँ काली दह पै आयौ॥
खेल ही खेल में फेंक दयी तब, गेंद को एक बहानौं बनायौ।
गेंद के संग ही कूद गयौ लखि, ग्वालन पै सन्नाटौ सौ छायौ॥

अति दुस्तर कालिया नाग कूँ नाथि कें, नृत्य किया अति ही अलबेला।
भर मोद हँसे ब्रजबासी सभी, फन ऊपर श्याम को देखि अकेला॥
कैसे बखानूँ खुशी उर की, तन श्याम ने मेरा सखा झकझोला।
पद छूकर धन्य हुआ यह तन, हरदम बस ध्यान रहे वह बेला॥

स्पर्श किया जब मोहन ने, तब से मन नित्य उमंगित होता।
हुआ जीवन धन्य तभी से मेरा, यह जान हिया भी तरंगित होता॥
उर साज हुई चिर आस महा, परिपूर्णित देखि सारंगित होता।
पद पंकज प्रेम पराग चढ़ा, तन मेरा सदा मकरंदित होता॥

खिले सुन्दर पुष्प ललाम लता, सुचि सौम्य सुगम बरसात हुई है।
सहलाता धरा चलता है पवन, मानो प्रेम परस्पर की बात हुई है॥
निशि को रवि ने हँसि कीन्हा नमन, अति सुन्दर रम्य प्रभात हुई है।
इतना चकराते हो संजय क्यों, ब्रज की तो अभी शुरूआत हुई है॥

चाँदी के थाल ज्यौं सोना सजे, यमुना में किरण सूर्य की आ रहीं हैं।
बैठि कदंब की डालन पै, भर हर्ष मह कोकिला गा रहीं हैं॥
उत ऊपर एक नजर तो करो, घनश्याम घटा ब्यौम में छा रही हैं।
अभी संजय देखो छ्टा ब्रज की, दधि बेचन को गूजरी जा रही हैं॥

No comments: