यह खेल जरूरी है खेलना क्या, कभी आते हो और कभी चले जाते।
बहलाते हो आकर के मन को, फिर जाकर आखिर क्यों हो सताते॥
यह भाव वियोग भले हो बड़ा, हमको इसके कुछ स्वाद न भाते।
ढिंग आपने श्याम बुला के रखो, रहो थोड़ा सा माखन यों ही चटाते॥
अभी ध्यान तुम्हारे में बैठे ही थे, मन चंचलता दिखलाने लगा।
फिर रस्सा कसी का सा खेल चला, वह खेल पड़ा हमको मँहगा॥
मन जीत गया नहीं पेश चली, यह देने लगा हमको ही दगा।
कुछ संयम शक्ती प्रदान करो, फिर खींचूं इसे तव हो ये सगा॥
जब जानते दास तुम्हारा ही हूँ, तब प्रेम परीक्षा यों लेते हो क्यों।
मन मंतर माया चला कर के, अनुत्तीर्ण करा फिर देते हो क्यों॥
मझदार में नैया फंसा कर के, पतवार बने फिर खेते हो क्यों।
असमर्थ हूँ प्रेम परीक्षा में मैं, यह जानके भी फिर लेते हो क्यों॥
घनश्याम जरा हँस के कह दो, मैं हूँ दास तेरा तुम मालिक मेरे।
यह जीवन धन्य तभी समझूँ, व्यथा व्यर्थ व्यतीत हुए बहुतेरे॥
प्रभु सेवा के भाव विहीन हुआ, दुख-आलय के करता रहा फेरे।
करुणेश दया कर दृष्टि करो, करूँ सेवा सदैव रहूँ ढिंग तेरे॥
मधुरामृत लाके पिला दे कोई, घनश्याम की राह दिखा दे कोई।
निशि वासर नाम जपूँ उसका, रसना पर नाम लिखा दे कोई॥
उस मोहनी मुरत का उर में, बस चित्र बनाना सिखा दे कोई।
मरते हुए को यों जिला दे कोई, मिलवा वह श्याम सखा दे कोई॥
Thursday, July 17, 2008
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2 comments:
संजय जी,सवैया पढ मन आनंददित हो गया। बहुत बेहतरीन लिखा है।बधाई स्वीकारें।सदा इसी तरह लिखते रहें।
बहुत बहुत सुन्दर लिखा है आपने संजय जी | ये मानो मन मदमस्त हो गया ... अपने इस अमृत बिन्दुओं को सदा इसी तरह से बिखराते रहे
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