Thursday, July 17, 2008

ब्रज के सवैया-25

अरे कृष्ण कहाँ चले दूर गये, यह माया तेरी मुझको गहती है।
कुछ हाल में बीता यों वक्त प्रभो, वह प्रेम की धार नहीं बहती है॥
चरनाम्बुज में नहीं चित्त लगे, मृग तृष्णा फँसी जग में रहती है।
प्रभु प्रेम का अमृत पीती नहीं, विष पीकर कष्ट विषय सहती है॥

अब माधव ध्यान करो भी जरा, दृग बिन्दु अपार बहे जा रहे हैं।
छलिया छल छोड़ के दर्शन दो, हम कष्ट विषय का सहे जा रहे हैं॥
देवेश दया कर दृष्टि करो, उर अंतर भाव कहे जा रहे हैं।
मैं चकोर हूँ हो तुम चंद मेरे, बिन दर्श न नैन रहे जा रहे हैं॥

वह तान बजाकर बाँसुरी की, कह दो तुम नाथ निरंतर मेरे।
नहीं छोड़ोगे साथ भविष्य में भी, बने चाँहे मेरे अपराध घनेरे॥
अति शीघ्र बुलाओगे पास मुझे, करवाओगे और नहीं जग फेरे।
कह दो इतना मुसिकाकर के, सुनो अर्ज़ मेरी परूँ पामन तेरे॥

वह जीवन नाव न डोले भँवर, जिसके पतवार बने बनबारी।
नहीं वृष्टि विषय की भी पेश चले, गिरिराज लिये हों खड़े गिरिधरी॥
प्रेमान्जन नैंन लगा यदि हो, मिटती जग-जीव की बाधायें सारी।
कोई लूटेगा क्या उससे अर्पण, सर्वस्व किया जिसने त्रिपुरारी॥

पड़ते जब अंग शिथिल तन हों, करवादे कोई तेरे नाम की फाँकी।
लगे क्षीण हुई दृग ज्योति यदि, बस तेरी हो श्याम निरंतर झाँकी॥
इस दास के पास बने रहना, नहीं बात सही तुमने यदि ना की।
निकलें जब प्राण कलेवर से, उर में बस हो वह मूरति बाँकी॥

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