Thursday, July 17, 2008

ब्रज के सवैया-27

मुख सुन्दर श्याम अनूप छटा, अलकावली काली बही जा रही हैं।
तिरछी मुसकान तथा तिरछी, दृग कोर न आज सही जा रही हैं॥
लखि साँवरी सूरत साँवरे की, ब्रजनारि ठगी सी रही जा रही हैं।
अलबेली छटा घनश्याम सखा, नहीं संजय आज सही जा रही हैं॥

जब से नहीं याद किया तुमको, तब से कुछ चित्त अशाँत सा है।
श्रम खूब किया सब व्यर्थ गया, कल की अभिलाषा में भ्राँत सा है॥
उर भीतर हर्ष तरंग नहीं, डर सान्ध्य प्रहर के प्रशाँत सा है।
कुछ यों महसूस हुआ हमको, किसी भूकंप के उपरांत सा है॥

नभ में घनश्याम छटा दिखती, अथवा घनश्याम की कान्ति है क्या।
ॠतुराज के पुष्पों की चादर है, अथवा पट पीत की भ्रांति है क्या॥
उठती है हिलोर जलाधिप में, उर में वह दर्श अशान्ति है क्या।
सुखदायक सौम्य समीर है या, ब्रजराज समीप्य की शान्ति है क्या॥

वह भक्ती ही क्या करने से जिसे, भगवान हुए ना प्रसन्न अहो।
दृग से यदि धार नहीं बहती, वह पूजा नहीं चाहे जो भी कहो॥
वह स्वाँग ही है हरी कीर्तन का, यदि चंचल चित्त कहीं और हो।
परिपूर्ण समर्पण है जबही, घनश्याम के पामों को पूर्ण गहो॥

चहुँ ओर हो भक्तों की टोली जहाँ, फिर क्यों इतने घबड़ाते हो तुम।
किस भाँति व्यवस्था बनायी सभी, फिर क्यों न हृदय सुख पाते हो तुम॥
यह रैस्टन क्षेत्र बड़ा रमणीय, तो क्यों व्यथा छोड़ के जाते हो तुम।
घनश्याम हैं भक्तों के साथ सदा, यह जान के भी भरमाते हो तुम॥

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