Thursday, July 17, 2008

ब्रज के सवैया-26

तुझ पै घनश्याम चढ़ाऊँ में क्या, तन है मन है धन है सब तेरा।
जग में नहीं दीखती वस्तु कोई, जिसपै यदि हो अधिकार जो मेरा॥
फिर कैसे रिझाऊँ मनाऊँ तुम्हें, करो कोर कृपा करते क्यों हो घेरा।
निज प्रीति की ज्योति जगा उर में, घनश्याम करो मम चित्त बसेरा॥

करुणेश कृपा कुछ यों कर दो, जग छोड़ू रहूँ मदमस्त बना।
गुणगान में ध्यान निरंतर हो, रहूँ प्रेम पियूश पुनीत सना॥
निज प्राण प्रसून चढ़ा कर के, चरणों पै तेरे तुझको लूँ मना।
नहीं दीन तजो दीनानाथ प्रभो, यह दास तेरा है सदा अपना॥

नहीं साधन सिद्धि किये अब लौं, यह जीवन व्यर्थ व्यतीत हुआ।
पद पंकज प्रेम बिहीन रहा, सुचि स्वर्णिम वक्त अतीत हुआ॥
फँस के जग जाल में ध्वस्त हुआ, फिर भी कोई सच्चा न मीत हुआ।
रस बिन्दु का नाम निशान नहीं, सर्वस्व मेरे विपरीत हुआ॥

अब माधव सत्य बताओ हमें, पद पंकज दास बनाते हो क्या।
दृग कोर चला फिर यों तिरछी, हमको तुम व्यर्थ सताते हो क्या॥
कुछ प्रेम का पाठ पढ़ाते हो, या फिर व्यर्थ हमें भरमाते हो क्या।
सच बात कहो हमसे उर की, उर-बासी हमारे कहाते हो क्या॥

तुम सिन्धु हो बिन्दु बने हम हैं, हमको अपने में ही श्याम मिलाओ।
बहु काल व्यतीत हुआ जग में, अब और नहीं यह खेल खिलाओ॥
इस प्यासे पपैया से जीवन में, निज नाम की स्वाँती की बूँद पिलाओ।
अति दुर्बल दीन मृतक सम हूँ, करुणानिधि आकर हाय जिलाओ॥

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